खडीन
खडीन का सर्वप्रथम प्रचलन 15 वीं शताब्दी में जैसलमेर के पालीवाल ब्राह्मणों ने किया था। यह बहु उद्देशीय परम्परागत तकनीकी ज्ञान पर आधारित होती है। खडीन के निर्माण हेतु राज द्वारा जमीन दी जाती थी जिसके बदले में उपज का 1/4 हिस्सा देना पड़ता था। जैसलमेर जिले में लगभग 500 छोटी बड़ी खडीनें विकसित हैं, जिनसे 1300 हैक्टेयर जमीन सिंचित की जाती है। वर्तमान में ईराक के लोग भी इस प्रणाली को अपनाये हुए हैं। यह ढालवाली भूमि के नीचे निर्मित होता है। इसके दो तरफ मिट्टी की पाल होती है। तीसरी तरफ पत्थर की पक्की चादर बनाई जाती है। खडीन का क्षेत्र विस्तार 5 से 7 किलो मीटर तक होता है। पाल सामान्यतया 2 से 4 मीटर तक ऊंची होती है। पानी की मात्रा अधिक होने पर पानी अगले खडीन में प्रवेश कर जाता है। सूखने पर पिछली खडीन की भूमि में नमी के आधार पर फसलें उगाई जाती है। मरू क्षेत्र में इन्हीं परिस्थितियों में गेहूँ की फसल उगाई जाती है। खडीन तकनीकी द्वारा बंजर भूमि को भी कृषि योग्य बनाया जाता है। जिस स्थान पर पानी एकत्रित होता है, उसे खडीन तथा इसे रोकने वाले बांध को खडीन बांध कहते हैं। खडीन बांध इस प्रकार से बनाए जाते हैं ताकि पानी की अधिक आवन पर अतिरिक्त पानी ऊपर से निकल जाए। गहरी खडीनों में पानी को फाटक से आवश्यकतानुसार निकाल दिया जाता है।खडीनों में बहकर आने वाला जल अपने साथ उर्वरक मिट्टी बहाकर लाता है। जिससे उपज अच्छी होती हैं। खडीन पायतान क्षेत्र में पशु चरते है जिससे पशुओं द्वारा विसरित गोबर मृदा (भूमि) को उपजाऊ बनाता है। खडीनों के नीचे ढलान में कुआं भी बनाया जाता है जिसमें खडीन से रिस कर पानी आता रहता है, जो पीने के उपयोग में आता है। जल प्रबधन कार्यक्रम में परम्परागत निर्मित प्राचीन खडीनों का वैज्ञानिक रख-रखाव होना चाहिए तथा नई खडीनें पारम्परिक तकनीकी ज्ञान के सहारे निर्मित की जानी चाहिए। राजस्थान सरकार ने नई खडीने बनवाने की योजना बनाई है।
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Reviewed by netfandu
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9:10 AM
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